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शिमला : हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने अवैध कब्जों के नियमितीकरण को असंवैधानिक ठहराया,धारा 163-ए की वैधता पर उठाए सवाल !

द्वारा
विशाल सूद -
शिमला ( शिमला ) - August 5, 2025 @ 06:22 pm
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शिमला , 05 अगस्त [ विशाल सूद ] : सरकारी भूमि पर बढ़ते अवैध कब्जों पर कड़ा रुख अपनाते अपनाते हुए हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में अवैध कब्जों के नियमितीकरण को असंवैधानिक घोषित करार दिया है। न्यायमूर्ति विवेक सिंह ठाकुर और न्यायमूर्ति बिपिन चंदर नेगी की खंडपीठ ने हिमाचल प्रदेश भू-राजस्व अधिनियम की धारा 163-ए की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाते हुए इसे मनमाना और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) का उल्लंघन बताया है। अदालत ने कहा कि अवैध कब्जाधारकों को कानून का पालन करने वालों के बराबर मानना, अवैधता को बढ़ावा देने जैसा है और यह समानता के सिद्धांत को कमजोर करता है।अदालत ने टिप्पणी की, है कि"अनुच्छेद 14 धोखाधड़ी या अवैधता को बढ़ावा देने वाले सरकारी मामलों का समर्थन नहीं करता है। राज्य सरकार की ऐसी नीति को असंवैधानिक करार दिया जो अवैध कब्जों को वैध करने की पैरवी करती हो। हाइकोर्ट ने अवैध कब्जों की पूर्ण रूप से हटाने के आदेश दिए है। सरकार को सभी सरकारी भूमि से अवैध कब्जों को हटाने का निर्देश दिया गया है। अवैध कब्जों को हटाने और ढांचों को तोड़ने की लागत भी कब्जाधारकों से वसूली जाएगी। कोर्ट ने कहा है कि जिन क्षेत्रों में अवैध कब्जे हुए हैं, वहां के राजस्व व वन विभाग के संबंधित अधिकारियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। फील्ड स्टाफ की लापरवाही या मिलीभगत पर तत्काल निलंबन और फिर सेवा से हटाने की कार्यवाही की जाए। वन रक्षकों और पटवारियों को अपने क्षेत्र में प्रत्येक माह कब्जों की जानकारी या शपथपत्र प्रस्तुत करना अनिवार्य किया गया है। कब्जाधारियों से वसूली गई राशि का उपयोग वनीकरण अथवा अन्य पर्यावरणीय उद्देश्यों हेतु किया जाएगा। खाली कराई गई भूमि की तारबंदी कब्जाधारी के खर्च पर की जाएगी और वहां स्थायी सीमा चिन्ह लगाए जाएंगे। जिस भूमि पर फलदार पौधे मौजूद हैं, वहां फलों को नीलामी के माध्यम से बेचा जाएगा। यदि यह संभव न हो, तो उन्हें वन्यजीवों के लिए छोड़ दिया जाएगा। हरियाणा बनाम मुकेश कुमार (2011) और रविंदर कौर ग्रेवाल बनाम मंजीत कौर (2019) जैसे मामलों का हवाला देते हुए अदालत ने राज्य को धारा 163 पर पुनर्विचार का सुझाव दिया है, जो अब भी राज्य भूमि पर प्रतिकूल कब्जे के माध्यम से मालिकाना हक के दावे की अनुमति देती है – एक धारणा जिसकी सुप्रीम कोर्ट ने पहले कड़ी आलोचना की थी। राज्य सरकार ने वर्ष 1983 से विभिन्न नीतियों के तहत अवैध कब्जों के नियमितीकरण की अनुमति दी थी। 4 जुलाई 1983 की नीति के तहत 5 बीघा तक के कब्जों को ₹50 प्रति बीघा शुल्क लेकर नियमित किया जा सकता था। 5 से 10 बीघा तक के कब्जों पर बाजार मूल्य का तीन गुना जुर्माना, 10 से 20 बीघा तक के कब्जों पर दस गुना जुर्माना, 20 बीघा से अधिक कब्जों पर सीधा बेदखली का प्रावधान था। इन दरों में 1984 और 1987 में संशोधन किया गया था। 1987 की नीति में कट-ऑफ तिथि 30 अगस्त 1982 रखी गई थी, जिसके तहत केवल वे कब्जे जो 30 जून 1970 या उससे पहले से लगातार चले आ रहे थे, उन्हें नियमित किया जा सकता था। अब अदालत ने स्पष्ट किया है कि ये सभी नीतियां कानून के शासन का उल्लंघन हैं। यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट के जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य (2011) के आदेशों की पुनः पुष्टि करता है, जिसमें अदालत ने सभी राज्यों को सरकारी और ग्राम भूमि से कब्जे हटाने के निर्देश दिए थे। अदालत ने स्पष्ट कहा था कि नियमितीकरण से अवैधता को बढ़ावा मिलता है। 2016 में, एचपी हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से जिलावार कब्जों की विस्तृत रिपोर्ट मांगी थी। 2023 में, अदालत ने पुनः आदेश दिया था कि खाली कराई गई भूमि को तारबंदी की जाए और दोबारा कब्जे करने वालों को दंडित किया जाए। इसके अलावा, अदालत ने कहा कि वन भूमि पर बिना अनुमति से बागवानी गतिविधियां जैसे सेब के बगीचे लगाना, वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 का उल्लंघन है, और ऐसे बागानों को हटा कर वहां वन प्रजातियों का रोपण किया जाए। अदालत ने महाधिवक्ता को निर्देश दिया है कि इस फैसले की प्रतियां मुख्य सचिव, सभी उपायुक्तों तथा संबंधित वन और राजस्व अधिकारियों को भेजी जाएं ताकि तत्काल अनुपालन सुनिश्चित किया जा सके। तय समयसीमा में अनुपालन रिपोर्ट दाखिल करने का भी निर्देश दिया गया है। यह फैसला हिमाचल प्रदेश में भूमि प्रबंधन और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक निर्णायक मोड़ साबित होगा, जो राज्य में संस्थागत अवैधता के प्रति न्यायिक असहिष्णुता को रेखांकित करता है। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय मेंवन भूमि परगाय एप्पल के पौधों को काटने के भी निर्देश दिए थेजिस पर हिमाचल प्रदेश सरकार कार्रवाई कर रही थी लेकिन शिमला की पूर्व डिप्टी मेयर औरपर्यावरण विशेषज्ञ टिकेंद्र सिंह पंवार ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दर्ज की थीजिसमें उन्होंने हरे पेड़ों को काटने पर रोक लगाने की मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने उसे मामले में स्टे लगा दिया है और साथ में ही हिमाचल प्रदेश सरकार को यह भी निर्देश दिए हैं कि जो अवैध कब्जे हैं उनको खाली किया जा सकता है लेकिन हरे पेड़ों को काटना बाजिव नहीं है। 

शिमला , 05 अगस्त [ विशाल सूद ] : सरकारी भूमि पर बढ़ते अवैध कब्जों पर कड़ा रुख अपनाते अपनाते हुए हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में अवैध कब्जों के नियमितीकरण को असंवैधानिक घोषित करार दिया है। न्यायमूर्ति विवेक सिंह ठाकुर और न्यायमूर्ति बिपिन चंदर नेगी की खंडपीठ ने हिमाचल प्रदेश भू-राजस्व अधिनियम की धारा 163-ए की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाते हुए इसे मनमाना और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) का उल्लंघन बताया है।

अदालत ने कहा कि अवैध कब्जाधारकों को कानून का पालन करने वालों के बराबर मानना, अवैधता को बढ़ावा देने जैसा है और यह समानता के सिद्धांत को कमजोर करता है।अदालत ने टिप्पणी की, है कि"अनुच्छेद 14 धोखाधड़ी या अवैधता को बढ़ावा देने वाले सरकारी मामलों का समर्थन नहीं करता है। राज्य सरकार की ऐसी नीति को असंवैधानिक करार दिया जो अवैध कब्जों को वैध करने की पैरवी करती हो।

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हाइकोर्ट ने अवैध कब्जों की पूर्ण रूप से हटाने के आदेश दिए है। सरकार को सभी सरकारी भूमि से अवैध कब्जों को हटाने का निर्देश दिया गया है। अवैध कब्जों को हटाने और ढांचों को तोड़ने की लागत भी कब्जाधारकों से वसूली जाएगी।

कोर्ट ने कहा है कि जिन क्षेत्रों में अवैध कब्जे हुए हैं, वहां के राजस्व व वन विभाग के संबंधित अधिकारियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। फील्ड स्टाफ की लापरवाही या मिलीभगत पर तत्काल निलंबन और फिर सेवा से हटाने की कार्यवाही की जाए।

वन रक्षकों और पटवारियों को अपने क्षेत्र में प्रत्येक माह कब्जों की जानकारी या शपथपत्र प्रस्तुत करना अनिवार्य किया गया है। कब्जाधारियों से वसूली गई राशि का उपयोग वनीकरण अथवा अन्य पर्यावरणीय उद्देश्यों हेतु किया जाएगा। खाली कराई गई भूमि की तारबंदी कब्जाधारी के खर्च पर की जाएगी और वहां स्थायी सीमा चिन्ह लगाए जाएंगे।

जिस भूमि पर फलदार पौधे मौजूद हैं, वहां फलों को नीलामी के माध्यम से बेचा जाएगा। यदि यह संभव न हो, तो उन्हें वन्यजीवों के लिए छोड़ दिया जाएगा। हरियाणा बनाम मुकेश कुमार (2011) और रविंदर कौर ग्रेवाल बनाम मंजीत कौर (2019) जैसे मामलों का हवाला देते हुए अदालत ने राज्य को धारा 163 पर पुनर्विचार का सुझाव दिया है, जो अब भी राज्य भूमि पर प्रतिकूल कब्जे के माध्यम से मालिकाना हक के दावे की अनुमति देती है – एक धारणा जिसकी सुप्रीम कोर्ट ने पहले कड़ी आलोचना की थी।

राज्य सरकार ने वर्ष 1983 से विभिन्न नीतियों के तहत अवैध कब्जों के नियमितीकरण की अनुमति दी थी। 4 जुलाई 1983 की नीति के तहत 5 बीघा तक के कब्जों को ₹50 प्रति बीघा शुल्क लेकर नियमित किया जा सकता था। 5 से 10 बीघा तक के कब्जों पर बाजार मूल्य का तीन गुना जुर्माना, 10 से 20 बीघा तक के कब्जों पर दस गुना जुर्माना, 20 बीघा से अधिक कब्जों पर सीधा बेदखली का प्रावधान था।

इन दरों में 1984 और 1987 में संशोधन किया गया था। 1987 की नीति में कट-ऑफ तिथि 30 अगस्त 1982 रखी गई थी, जिसके तहत केवल वे कब्जे जो 30 जून 1970 या उससे पहले से लगातार चले आ रहे थे, उन्हें नियमित किया जा सकता था। अब अदालत ने स्पष्ट किया है कि ये सभी नीतियां कानून के शासन का उल्लंघन हैं।

यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट के जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य (2011) के आदेशों की पुनः पुष्टि करता है, जिसमें अदालत ने सभी राज्यों को सरकारी और ग्राम भूमि से कब्जे हटाने के निर्देश दिए थे। अदालत ने स्पष्ट कहा था कि नियमितीकरण से अवैधता को बढ़ावा मिलता है।

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इसके अलावा, अदालत ने कहा कि वन भूमि पर बिना अनुमति से बागवानी गतिविधियां जैसे सेब के बगीचे लगाना, वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 का उल्लंघन है, और ऐसे बागानों को हटा कर वहां वन प्रजातियों का रोपण किया जाए।

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