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बददी ! बीबीएन क्षेत्र में जहां सात सौ से अधिक छोटे बडे दवा उद्योग हैं वहीं पांच दर्जन से ज्यादा दवा की पैकिंग में इस्तेमाल होने वाली फवायल प्रिंटिग के उद्योग हैं जिसमें सैकडों लोगों को रोज़गार मिला हुआ है। परन्तु लॉकडाउन की वजह से अब इन सैकडों परिवारों पर रोटी का संकट खडा हो गया है। एक दर्जन से ज्यादा प्रिंटरों ने सामूहिक बैठक करके दवा उद्योगों पर आरोप लगाते हुए कहा कि पहले तो दवा उद्योग हमसे तीन महीनों के उधार की गारंटी भरवाते हैं लेकिन जब तीन महीनों के बाद पेमेन्ट की बारी आती है तो अधिकतर दवा उद्योग एक वेन्डर से काम दूसरे वेंडर को देना शुरू कर देते हैं तथा पेमेन्ट के लिए छ: महीनों तक भटकाते रहते हैं। जिसके कारण अब उन्हें अपने सूक्ष्म उद्योग चलाने मुश्किल हो चुके हैं। मुकेश झा, मनोज सलोरा, पंकज शर्मा, विरेन्द्र, मखन सिंह आदि फवायल प्रिंटरों का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान एकमात्र दवा उद्योग ही कार्यरत थे तथा हमने इन्हें भरपूर सप्लाई उपलब्ध करवाई। लेकिन छ: महीने बीत जाने के बाद भी अभी तक दवा निर्माता पुरानी पेमेन्ट नहीं कर रहे हैं तथा बार बार कहने पर उल्टे प्रिंटरों के रेट में ही कटौती कर देते हैं। उपरोक्त प्रिंटरों का कहना है कि एक तरफ बैंकों ने छ: महीनों का ब्याज एक साथ लगाकर छोटे उद्यमियों की की कमर तोड दी है वहीं दूसरी तरफ मंहगे किराये तथा बिजली बिलों से उद्योग चला पाना कठिन हो चुका है। सभी उद्यमियों ने सामूहिक तौर पर सरकार से मांग की है कि दवा निर्माताओं की मनमानी पर अंकुश लगाया जाये तथा बैंकों का लाकडाउन के दौरान कर्ज पर ब्याज मुक्त किया जाये।
बददी ! बीबीएन क्षेत्र में जहां सात सौ से अधिक छोटे बडे दवा उद्योग हैं वहीं पांच दर्जन से ज्यादा दवा की पैकिंग में इस्तेमाल होने वाली फवायल प्रिंटिग के उद्योग हैं जिसमें सैकडों लोगों को रोज़गार मिला हुआ है। परन्तु लॉकडाउन की वजह से अब इन सैकडों परिवारों पर रोटी का संकट खडा हो गया है। एक दर्जन से ज्यादा प्रिंटरों ने सामूहिक बैठक करके दवा उद्योगों पर आरोप लगाते हुए कहा कि पहले तो दवा उद्योग हमसे तीन महीनों के उधार की गारंटी भरवाते हैं लेकिन जब तीन महीनों के बाद पेमेन्ट की बारी आती है तो अधिकतर दवा उद्योग एक वेन्डर से काम दूसरे वेंडर को देना शुरू कर देते हैं तथा पेमेन्ट के लिए छ: महीनों तक भटकाते रहते हैं।
जिसके कारण अब उन्हें अपने सूक्ष्म उद्योग चलाने मुश्किल हो चुके हैं। मुकेश झा, मनोज सलोरा, पंकज शर्मा, विरेन्द्र, मखन सिंह आदि फवायल प्रिंटरों का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान एकमात्र दवा उद्योग ही कार्यरत थे तथा हमने इन्हें भरपूर सप्लाई उपलब्ध करवाई। लेकिन छ: महीने बीत जाने के बाद भी अभी तक दवा निर्माता पुरानी पेमेन्ट नहीं कर रहे हैं तथा बार बार कहने पर उल्टे प्रिंटरों के रेट में ही कटौती कर देते हैं। उपरोक्त प्रिंटरों का कहना है कि एक तरफ बैंकों ने छ: महीनों का ब्याज एक साथ लगाकर छोटे उद्यमियों की की कमर तोड दी है वहीं दूसरी तरफ मंहगे किराये तथा बिजली बिलों से उद्योग चला पाना कठिन हो चुका है। सभी उद्यमियों ने सामूहिक तौर पर सरकार से मांग की है कि दवा निर्माताओं की मनमानी पर अंकुश लगाया जाये तथा बैंकों का लाकडाउन के दौरान कर्ज पर ब्याज मुक्त किया जाये।
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