भद्रकाली को किया जाता है खून से तिलक, मानव बलि को रोकने के लिए धामी रियासत की रानी हुई थी सती, पत्थर मेले की शुरुआत की थी, सती होने के बाद से शुरू हुई ये परंपरा, आसपास के गांव से हज़ारों लोगों ने पहुंचे पत्थर मेले में, करीब 25 मिनट तक हुई पत्थरों की बारिश, 60 साल के सुभाष को लगा पत्थर, मां काली को चढाया खून, सुरक्षा व्यवस्था को लेकर पुलिस प्रशासन मौजूद, एम्बुलेंस भी होती है मौके पर मौजूद, बाहरी लोगों को नहीं खेल में भाग लेने की अनुमति,
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शिमला , 21 ऑक्टूबर [ विशाल सूद ] ! पत्थर मेला...जिसमें लोग अपनी मर्ज़ी से खुशी में पत्थर फेंकते हैं और यह कामना करते हैं कि उन्हें पत्थर आकर लगे, सिर फटे, जिससे उन्हें खुशी होती है। लोग इसे शुभ संकेत (शगुन) मानते हैं। जी हां, शिमला से करीब 30 किलोमीटर दूर धामी के हलोग में यह पत्थर मेला मनाया जाता है। कई शताब्दियों पुरानी परंपरा है यह, जिसमें अपनी इच्छा से लोग भाग लेते हैं और अपने को चोट लगने का इंतज़ार करते हैं, ताकि उनका खून बहे और मां काली को उनके रक्त से तिलक लगाया जा सके। दीवाली के अगले ही दिन यह पत्थर खेल होता है। इस बार 60 साल के सुभाष को मां काली के मंदिर में खून चढ़ाने का मौका मिला। इस बार यह पत्थर मेला करीब 25 मिनट तक चला। सुभाष को पत्थर लगते ही पत्थर खेल को तुरंत बंद कर दिया गया। आपको बता दें कि इस खतरनाक खेल में केवल स्थानीय खुंद के लोग ही भाग लेते हैं। इसमें महिलाओं और बच्चों को भाग लेने की अनुमति नहीं होती है। चलिए आपको बताते हैं कि आखिरकार यह क्यों मनाया जाता है और इसके पीछे क्या कहानी है? यह आज से करीब 400 साल या शायद उससे भी पहले की बात है जब धामी रियासत की रानी ने एक कुप्रथा को रोकने के लिए अपना बलिदान दिया था। पुराने समय में धामी रियासत में महामारी और बुरी घटनाओं से बचने के लिए नरबलि ली जाती थी, जो यहां की रानी को पसंद नहीं था। इस प्रथा को बंद करने के लिए रानी धामी के चौक पर सती हो गई थीं। सती होने से पहले रानी ने कहा था कि अब कोई नरबलि नहीं होगी। अगर मां काली को मानव रक्त ही चढ़ाना है तो वह पत्थर खेल के ज़रिए तिलक से होगा। उसके बाद रानी सती हो गईं। जिस जगह पर रानी ने सतीत्व प्राप्त किया था, आज वहां एक स्मारक बनाया गया है, जिसे रानी का चौरा कहा जाता है। इसी जगह पर यह पत्थर मेला खेला जाता है। राजवंश परिवार की दो टोलियां आपस में पत्थर फेंककर इस मेले को मनाती हैं। राजपरिवार के उत्तराधिकारी जगदीप सिंह राणा ने बताया कि लोग श्रद्धा और निष्ठा से इस परंपरा को निभाते हैं। इस पर्व में धामी, सुन्नी, कालीहट्टी, अर्की, दाड़लाघाट, चनावग, पनोही व शिमला के आसपास के क्षेत्र के लोग भाग लेते हैं। पत्थर मेले में राजपरिवार के साथ कटैड़ू और तुनड़ु, दगोई, जठोटी खुंद के लोग शामिल थे, जबकि दूसरी टोली में जमोगी खुंद के लोग शामिल होते हैं। आसपास के स्थानीय लोग मां सती के स्मारक के पास एकत्रित होते हैं। दोनों टोलियां पूजा-अर्चना के बाद पत्थर खेल शुरू करती हैं। पत्थर मेले में करीब 20 मिनट तक कटैड़ू और जमोगी राजवंश के लोग एक-दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं। इस दौरान दोनों ओर से लगातार छोटे और बड़े पत्थर फेंके जाते हैं। परंपरा की शुरुआत धामी रियासत के करीब 500 साल पुराने महल में स्थित भगवान नरसिंह के मंदिर में पूजा-अर्चना से होती है। राजघराने के लोग यहां पर जाकर पूजा करते हैं और मंदिर से फूल लेकर आते हैं। उसके बाद ढोल-नगाड़ों के साथ मंदिर से जुलूस निकाला जाता है। इस जुलूस के ज़रिए राजघराने के लोग खुंद के लोगों को पत्थर खेल में भाग लेने के लिए आमंत्रित करते हैं। मंदिर से रानी के स्मारक तक पहुंचने में करीब 30 मिनट का समय लगता है, और रास्ते में जितने भी लोग मिलते हैं उन्हें अपने साथ लेकर रानी के स्मारक तक लाया जाता है। इसी तरह दूसरी ओर से जमोगी खुंद के लोग भी ढोल-नगाड़ों के साथ रानी के स्मारक तक पहुंचते हैं।इस प्रथा की मान्यता इतनी गहरी है कि लोग पत्थर खेल में भाग लेने से पहले किसी तरह का संशय नहीं रखते और न ही उन्हें किसी तरह का डर सताता है। इस खेल में भाग लेने वाला हर व्यक्ति यही सोचता है कि पत्थर उसे लगे और उसकी टोली विजयी हो। जिस व्यक्ति का खून मां भद्रकाली को चढ़ाया जाता है, उसे भाग्यशाली माना जाता है। हलोग गांव के रहने वाले 60 वर्षीय सुभाष को इस बार पत्थर लगा। कटैड़ू खुंद के सुभाष पुलिस विभाग में एसएचओ के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। सुभाष ने कहा कि वो भाग्यशाली हैं, परंपराओं का निर्वहन इसी तरह करते रहेंगे, आगे भी इस मेले में भाग जरूर लेंगे। वहीं, मेला कमेटी धामी के जनरल सेक्रेटरी रणजीत सिंह कंवर ने कहा कि परंपरा की शुरुआत धामी रियासत के करीब 400 साल पुराने महल में स्थित भगवान नरसिंह के मंदिर में पूजा से होती है। राजघराने के लोग यहां जाकर पूजा करते हैं और मंदिर से फूल लेकर आते हैं। उसके बाद ढोल-नगाड़ों के साथ मंदिर से जुलूस निकाला जाता है। इस जुलूस के ज़रिए राजघराने के लोग खुंद के लोगों को पत्थर खेल में भाग लेने के लिए आमंत्रित करते हैं। मंदिर से रानी के स्मारक तक पहुंचने में करीब 30 मिनट का समय लगता है, और रास्ते में जितने भी लोग मिलते हैं उन्हें अपने साथ लेकर रानी के स्मारक तक लाया जाता है। इसी तरह दूसरी ओर से जमोगी खुंद के लोग ढोल-नगाड़ों के साथ रानी के स्मारक तक पहुंचते हैं। इस प्रथा की मान्यता इतनी गहरी है कि लोग पत्थर खेल में भाग लेने से पहले किसी भी तरह का डर नहीं रखते। इस खेल में भाग लेने वाला हर व्यक्ति यही सोचता है कि पत्थर उसे लगे और दूसरी टोली को हराया जाए। जिस व्यक्ति का खून मां भद्रकाली को चढ़ाया जाता है, उसे भाग्यशाली माना जाता है। गौरतलब है कि पत्थर खेल की यह परंपरा सदियों से चली आ रही है, और आज के विज्ञान के युग में भी लोग इसका बखूबी निर्वहन कर रहे हैं। इसमें क्षेत्र के सैकड़ों लोग शामिल होते हैं और दूर-दूर से लोग इसे देखने धामी पहुंचते हैं।
शिमला , 21 ऑक्टूबर [ विशाल सूद ] ! पत्थर मेला...जिसमें लोग अपनी मर्ज़ी से खुशी में पत्थर फेंकते हैं और यह कामना करते हैं कि उन्हें पत्थर आकर लगे, सिर फटे, जिससे उन्हें खुशी होती है। लोग इसे शुभ संकेत (शगुन) मानते हैं। जी हां, शिमला से करीब 30 किलोमीटर दूर धामी के हलोग में यह पत्थर मेला मनाया जाता है। कई शताब्दियों पुरानी परंपरा है यह, जिसमें अपनी इच्छा से लोग भाग लेते हैं और अपने को चोट लगने का इंतज़ार करते हैं, ताकि उनका खून बहे और मां काली को उनके रक्त से तिलक लगाया जा सके। दीवाली के अगले ही दिन यह पत्थर खेल होता है। इस बार 60 साल के सुभाष को मां काली के मंदिर में खून चढ़ाने का मौका मिला। इस बार यह पत्थर मेला करीब 25 मिनट तक चला।
सुभाष को पत्थर लगते ही पत्थर खेल को तुरंत बंद कर दिया गया। आपको बता दें कि इस खतरनाक खेल में केवल स्थानीय खुंद के लोग ही भाग लेते हैं। इसमें महिलाओं और बच्चों को भाग लेने की अनुमति नहीं होती है। चलिए आपको बताते हैं कि आखिरकार यह क्यों मनाया जाता है और इसके पीछे क्या कहानी है? यह आज से करीब 400 साल या शायद उससे भी पहले की बात है जब धामी रियासत की रानी ने एक कुप्रथा को रोकने के लिए अपना बलिदान दिया था।
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पुराने समय में धामी रियासत में महामारी और बुरी घटनाओं से बचने के लिए नरबलि ली जाती थी, जो यहां की रानी को पसंद नहीं था। इस प्रथा को बंद करने के लिए रानी धामी के चौक पर सती हो गई थीं। सती होने से पहले रानी ने कहा था कि अब कोई नरबलि नहीं होगी। अगर मां काली को मानव रक्त ही चढ़ाना है तो वह पत्थर खेल के ज़रिए तिलक से होगा। उसके बाद रानी सती हो गईं। जिस जगह पर रानी ने सतीत्व प्राप्त किया था, आज वहां एक स्मारक बनाया गया है, जिसे रानी का चौरा कहा जाता है।
इसी जगह पर यह पत्थर मेला खेला जाता है। राजवंश परिवार की दो टोलियां आपस में पत्थर फेंककर इस मेले को मनाती हैं। राजपरिवार के उत्तराधिकारी जगदीप सिंह राणा ने बताया कि लोग श्रद्धा और निष्ठा से इस परंपरा को निभाते हैं। इस पर्व में धामी, सुन्नी, कालीहट्टी, अर्की, दाड़लाघाट, चनावग, पनोही व शिमला के आसपास के क्षेत्र के लोग भाग लेते हैं। पत्थर मेले में राजपरिवार के साथ कटैड़ू और तुनड़ु, दगोई, जठोटी खुंद के लोग शामिल थे, जबकि दूसरी टोली में जमोगी खुंद के लोग शामिल होते हैं। आसपास के स्थानीय लोग मां सती के स्मारक के पास एकत्रित होते हैं। दोनों टोलियां पूजा-अर्चना के बाद पत्थर खेल शुरू करती हैं। पत्थर मेले में करीब 20 मिनट तक कटैड़ू और जमोगी राजवंश के लोग एक-दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं। इस दौरान दोनों ओर से लगातार छोटे और बड़े पत्थर फेंके जाते हैं।
परंपरा की शुरुआत धामी रियासत के करीब 500 साल पुराने महल में स्थित भगवान नरसिंह के मंदिर में पूजा-अर्चना से होती है। राजघराने के लोग यहां पर जाकर पूजा करते हैं और मंदिर से फूल लेकर आते हैं। उसके बाद ढोल-नगाड़ों के साथ मंदिर से जुलूस निकाला जाता है। इस जुलूस के ज़रिए राजघराने के लोग खुंद के लोगों को पत्थर खेल में भाग लेने के लिए आमंत्रित करते हैं। मंदिर से रानी के स्मारक तक पहुंचने में करीब 30 मिनट का समय लगता है, और रास्ते में जितने भी लोग मिलते हैं उन्हें अपने साथ लेकर रानी के स्मारक तक लाया जाता है।
इसी तरह दूसरी ओर से जमोगी खुंद के लोग भी ढोल-नगाड़ों के साथ रानी के स्मारक तक पहुंचते हैं।इस प्रथा की मान्यता इतनी गहरी है कि लोग पत्थर खेल में भाग लेने से पहले किसी तरह का संशय नहीं रखते और न ही उन्हें किसी तरह का डर सताता है। इस खेल में भाग लेने वाला हर व्यक्ति यही सोचता है कि पत्थर उसे लगे और उसकी टोली विजयी हो। जिस व्यक्ति का खून मां भद्रकाली को चढ़ाया जाता है, उसे भाग्यशाली माना जाता है। हलोग गांव के रहने वाले 60 वर्षीय सुभाष को इस बार पत्थर लगा। कटैड़ू खुंद के सुभाष पुलिस विभाग में एसएचओ के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। सुभाष ने कहा कि वो भाग्यशाली हैं, परंपराओं का निर्वहन इसी तरह करते रहेंगे, आगे भी इस मेले में भाग जरूर लेंगे।
वहीं, मेला कमेटी धामी के जनरल सेक्रेटरी रणजीत सिंह कंवर ने कहा कि परंपरा की शुरुआत धामी रियासत के करीब 400 साल पुराने महल में स्थित भगवान नरसिंह के मंदिर में पूजा से होती है। राजघराने के लोग यहां जाकर पूजा करते हैं और मंदिर से फूल लेकर आते हैं। उसके बाद ढोल-नगाड़ों के साथ मंदिर से जुलूस निकाला जाता है। इस जुलूस के ज़रिए राजघराने के लोग खुंद के लोगों को पत्थर खेल में भाग लेने के लिए आमंत्रित करते हैं। मंदिर से रानी के स्मारक तक पहुंचने में करीब 30 मिनट का समय लगता है, और रास्ते में जितने भी लोग मिलते हैं उन्हें अपने साथ लेकर रानी के स्मारक तक लाया जाता है।
इसी तरह दूसरी ओर से जमोगी खुंद के लोग ढोल-नगाड़ों के साथ रानी के स्मारक तक पहुंचते हैं। इस प्रथा की मान्यता इतनी गहरी है कि लोग पत्थर खेल में भाग लेने से पहले किसी भी तरह का डर नहीं रखते। इस खेल में भाग लेने वाला हर व्यक्ति यही सोचता है कि पत्थर उसे लगे और दूसरी टोली को हराया जाए। जिस व्यक्ति का खून मां भद्रकाली को चढ़ाया जाता है, उसे भाग्यशाली माना जाता है।
गौरतलब है कि पत्थर खेल की यह परंपरा सदियों से चली आ रही है, और आज के विज्ञान के युग में भी लोग इसका बखूबी निर्वहन कर रहे हैं। इसमें क्षेत्र के सैकड़ों लोग शामिल होते हैं और दूर-दूर से लोग इसे देखने धामी पहुंचते हैं।
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