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शिमला, 28 जून [ विशाल सूद ] ! भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष एवं सांसद सुरेश कश्यप ने कहा कि इमरजेंसी के दौरान मीडिया, न्यायपालिका और लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचल दिया गया था। कहा जाता है कि कुछ बुरी घटनाओं को जीवन से भुला देना चाहिए, यह बात व्यक्तिगत जीवन में उचित भी हो सकती है लेकिन जब विषय समाज और राष्ट्र का हो, तो ऐसी घटनाओं को चिरकाल तक याद रखना चाहिए, ताकि उनकी पुनरावृत्ति न हो सके। इसी उद्देश्य से देश और प्रदेश के युवाओं को संस्कारित, संगठित और संघर्षशील बनाए रखना आवश्यक है। इसी सोच के साथ आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। जब इस दिन को मनाने का निर्णय लिया गया तब नाम को लेकर अनेक विचार आए, कुछ लोगों को लगा कि ‘संविधान हत्या दिवस’ शब्द कुछ कठोर और निर्मम प्रतीत होता है, परंतु गंभीर विचार-विमर्श के पश्चात यह नाम इसलिए तय किया गया क्योंकि आपातकाल के दौरान देश को एक विशाल जेलखाना बना दिया गया था। देश की आत्मा को मूक कर दिया गया था, न्यायपालिका के कान बंद कर दिए गए थे और लेखनी से स्याही छीन ली गई थी। उस पूरे कालखंड का वर्णन ऐसे ही कठोर शब्दों के माध्यम से किया जाना चाहिए, ताकि नई पीढ़ी यह जान सके कि वास्तव में उस समय क्या हुआ था। कश्यप ने कहा कि इस अवसर पर ‘द इमरजेंसी डायरीज: ईयर दैट फॉर्ज्ड अ लीडर’ नामक पुस्तक का विमोचन भी हुआ, जिसमें माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के आपातकाल कालखंड के अनुभवों का वर्णन है। उस समय वे एक युवा संघ प्रचारक के रूप में भूमिगत रहकर 19 महीनों तक चले आंदोलन का हिस्सा रहे। उन्होंने श्री जयप्रकाश नारायण और नानाजी देशमुख के नेतृत्व में चल रहे जन आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी मीसा के तहत जेल में डाले गए बंदियों के परिजनों से मिले, उनकी समस्याएं सुनीं और उनके इलाज की व्यवस्था की। उन्होंने गुप्त समाचार पत्रों को बाजारों, चौराहों, विद्यार्थियों और महिलाओं में वितरित किया एवं गुजरात में संघर्ष का नेतृत्व किया। यह सब उन्होंने मात्र 24–25 वर्ष की आयु में किया था, जिसकी पूरी कथा इस पुस्तक में समाहित है। पुस्तक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ की भूमिका, लोक संघर्ष समिति के प्रयास, सत्याग्रह और जनजागरण की कठिनाइयों का भी उल्लेख किया गया है। माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी उस समय भूमिगत रहकर कार्य कर रहे थे। उन्होंने कभी साधु, कभी सरदार, कभी अगरबत्ती विक्रेता तो कभी अखबार वितरक का रूप धारण कर कार्य किया। कश्यप ने कहा कि जब विधाता न्याय करता है, तो वह अपने तरीके से करता है। जिस 25 वर्ष के युवक ने उस समय कांग्रेस पार्टी की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के तानाशाही विचारों का विरोध किया, घर-घर, गांव-गांव जाकर, शहरों में घूम-घूमकर विरोध किया, आज वही व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री है। जिस परिवारवाद को स्थापित करने के लिए आपातकाल थोपा गया था, उसी व्यक्ति ने 2014 में पूरे देश से परिवारवाद को उखाड़ फेंका। यह पुस्तक पांच अध्यायों में विभाजित है : मीडिया की सेंसरशिप, सरकार का दमन, संघ और जनसंघ का संघर्ष, आपातकालीन पीड़ितों की पीड़ा का वर्णन और तानाशाही से जन भागीदारी तक की यात्रा। विशेष रूप से देश के युवाओं को यह पुस्तक एक बार अवश्य पढ़नी चाहिए। किशोरावस्था के एक युवा ने अपने शुरुआती दिनों में तानाशाही के खिलाफ संघर्ष किया, आज वही युवा इस देश में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने वाला प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी बन चुका है।
शिमला, 28 जून [ विशाल सूद ] ! भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष एवं सांसद सुरेश कश्यप ने कहा कि इमरजेंसी के दौरान मीडिया, न्यायपालिका और लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचल दिया गया था। कहा जाता है कि कुछ बुरी घटनाओं को जीवन से भुला देना चाहिए, यह बात व्यक्तिगत जीवन में उचित भी हो सकती है लेकिन जब विषय समाज और राष्ट्र का हो, तो ऐसी घटनाओं को चिरकाल तक याद रखना चाहिए, ताकि उनकी पुनरावृत्ति न हो सके।
इसी उद्देश्य से देश और प्रदेश के युवाओं को संस्कारित, संगठित और संघर्षशील बनाए रखना आवश्यक है। इसी सोच के साथ आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया है। जब इस दिन को मनाने का निर्णय लिया गया तब नाम को लेकर अनेक विचार आए, कुछ लोगों को लगा कि ‘संविधान हत्या दिवस’ शब्द कुछ कठोर और निर्मम प्रतीत होता है, परंतु गंभीर विचार-विमर्श के पश्चात यह नाम इसलिए तय किया गया क्योंकि आपातकाल के दौरान देश को एक विशाल जेलखाना बना दिया गया था।
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देश की आत्मा को मूक कर दिया गया था, न्यायपालिका के कान बंद कर दिए गए थे और लेखनी से स्याही छीन ली गई थी। उस पूरे कालखंड का वर्णन ऐसे ही कठोर शब्दों के माध्यम से किया जाना चाहिए, ताकि नई पीढ़ी यह जान सके कि वास्तव में उस समय क्या हुआ था।
कश्यप ने कहा कि इस अवसर पर ‘द इमरजेंसी डायरीज: ईयर दैट फॉर्ज्ड अ लीडर’ नामक पुस्तक का विमोचन भी हुआ, जिसमें माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के आपातकाल कालखंड के अनुभवों का वर्णन है। उस समय वे एक युवा संघ प्रचारक के रूप में भूमिगत रहकर 19 महीनों तक चले आंदोलन का हिस्सा रहे।
उन्होंने श्री जयप्रकाश नारायण और नानाजी देशमुख के नेतृत्व में चल रहे जन आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी मीसा के तहत जेल में डाले गए बंदियों के परिजनों से मिले, उनकी समस्याएं सुनीं और उनके इलाज की व्यवस्था की। उन्होंने गुप्त समाचार पत्रों को बाजारों, चौराहों, विद्यार्थियों और महिलाओं में वितरित किया एवं गुजरात में संघर्ष का नेतृत्व किया। यह सब उन्होंने मात्र 24–25 वर्ष की आयु में किया था, जिसकी पूरी कथा इस पुस्तक में समाहित है।
पुस्तक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ की भूमिका, लोक संघर्ष समिति के प्रयास, सत्याग्रह और जनजागरण की कठिनाइयों का भी उल्लेख किया गया है। माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी उस समय भूमिगत रहकर कार्य कर रहे थे। उन्होंने कभी साधु, कभी सरदार, कभी अगरबत्ती विक्रेता तो कभी अखबार वितरक का रूप धारण कर कार्य किया।
कश्यप ने कहा कि जब विधाता न्याय करता है, तो वह अपने तरीके से करता है। जिस 25 वर्ष के युवक ने उस समय कांग्रेस पार्टी की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के तानाशाही विचारों का विरोध किया, घर-घर, गांव-गांव जाकर, शहरों में घूम-घूमकर विरोध किया, आज वही व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री है। जिस परिवारवाद को स्थापित करने के लिए आपातकाल थोपा गया था, उसी व्यक्ति ने 2014 में पूरे देश से परिवारवाद को उखाड़ फेंका।
यह पुस्तक पांच अध्यायों में विभाजित है : मीडिया की सेंसरशिप, सरकार का दमन, संघ और जनसंघ का संघर्ष, आपातकालीन पीड़ितों की पीड़ा का वर्णन और तानाशाही से जन भागीदारी तक की यात्रा। विशेष रूप से देश के युवाओं को यह पुस्तक एक बार अवश्य पढ़नी चाहिए। किशोरावस्था के एक युवा ने अपने शुरुआती दिनों में तानाशाही के खिलाफ संघर्ष किया, आज वही युवा इस देश में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने वाला प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी बन चुका है।
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