**देश विदेश के कई विद्वानों ने दिए गुर कि किस तरह भारत को विकसित बनाया जाए** *समापन समारोह में उपायुक्त मुकेश रैप्सवाल मुख्यातिथि के रूप में रहे उपस्थित*
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चम्बा , 04 नवंबर [ के एस प्रेमी ] !संस्कृति कोई अतीत की धरोहर मात्र नहीं है, जिसे संग्रहालयों में सहेजकर रखा जाए, बल्कि यह एक जीवंत प्रणाली है, जो लोगों के काम करने, सृजन करने और जीवनयापन के तरीकों को आकार देती है। यही संदेश चंबा के भूरी सिंह संग्रहालय में आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन हिमालयन लेगेसीज, एक्सप्लोरिंग हिस्ट्रीज, हेरिटेज प्रैक्टिसेज एंड कल्चरल फ्यूचर्स के एक सत्र में गूंजा। भूरी सिंह संग्रहालय और नॉट ऑन मैप संस्था की ओर से जिला मुख्यालय चंबा स्थित भूरी सिंह संग्रहालय की 117वीं वर्षगांठ पर हिमालयन लेगेसीज राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान शोधकर्ताओं ने शोध प्रस्तुत किए। इस दौरान मुख्य वक्ता एवं डा. प्राचार्य वजीर राम सिंह राजकीय महाविद्यालय देहरी सचिन कुमार ने आजीविका को केवल जीविकोपार्जन का माध्यम न मानकर एक व्यापक सांस्कृतिक प्रणाली के रूप में देखा जाना चाहिए। लोग अपनी आजीविका के लिए जो कार्य करते हैं, वे धीरे-धीरे उनकी सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा बन जाते हैं। पारंपरिक समाजों में काम और जीवन एक-दूसरे से अलग नहीं थे, जो आज के वर्क-लाइफ बैलेंस की अवधारणा से बिल्कुल भिन्न है। डा. कुमार ने कहा कि अब तक संस्कृति को राष्ट्रीय लेखा-जोखा प्रणाली में एक स्वतंत्र आर्थिक क्षेत्र के रूप में मान्यता नहीं मिली है, जिसके कारण नीतिगत योजना और निर्णय के लिए आवश्यक आंकड़ों की गंभीर कमी बनी हुई है। इस कमी के चलते हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य, जो कागजों पर समृद्ध दिखते हैं, स्थानीय स्तर पर असमानताओं का सामना कर रहे हैं। उन्होंने हिमाचल की पारंपरिक कला और शिल्प को आजीविका से जोड़ने में आने वाली प्रमुख चुनौतियों पर प्रकाश डाला। इनमें पारंपरिक ज्ञान का लोप, उत्पादन और विपणन श्रृंखला (वैल्यू चेन) का टूटना, विभागों के बीच समन्वय की कमी तथा पर्यटन और विकास के नाम पर सांस्कृतिक विरासत की गलत व्याख्या शामिल है। डा. कुमार ने संस्कृति को उद्योग का दर्जा देने, एक व्यापक सांस्कृतिक डाटाबेस तैयार करने और विद्यालयों से लेकर प्रशासनिक संस्थानों तक सांस्कृतिक साक्षरता बढ़ाने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने आधुनिक तकनीकों को पारंपरिक सौंदर्यशास्त्र और डिजाइन के साथ जोड़कर एक ऐसे सांस्कृतिक भविष्य की कल्पना करने का आह्वान किया, जो पहचान और गरिमा दोनों को बनाए रखे। सम्मेलन का पहला सत्र टेंपल्स, आइकन्स एंड सेक्रेड लैंडस्केप्स हिमाचल राज्य संग्रहालय शिमला के क्यूरेटर डा. हरि चौहान की अध्यक्षता में आयोजित हुआ। दूसरा सत्र रिचुअल्स, फेस्टिवल्स एंड लिविंग ट्रेडिशन्स की अध्यक्षता प्राचार्य राजकीय महाविद्यालय सलूणी डा. मोहिंदर सलारिया ने की, जबकि तीसरे सत्र नेचर, मिथ एंड इमैजिनेशन की अध्यक्षता डा. विद्या सागर शर्मा ने की। सम्मेलन में शोध पत्र प्रस्तुत करने वाले विद्वानों में हरीश्त शर्मा, सुमेधा पांडी, लक्ष्य जागलान, प्रीति बिष्ट, जयेंद्र सिंह कंवर, पल्लवी मिन्हास, युक्ति भारद्वाज, मजिंदर कौर, सचिन कुमार और दिनेश कुमार अत्री शामिल रहे।
चम्बा , 04 नवंबर [ के एस प्रेमी ] !संस्कृति कोई अतीत की धरोहर मात्र नहीं है, जिसे संग्रहालयों में सहेजकर रखा जाए, बल्कि यह एक जीवंत प्रणाली है, जो लोगों के काम करने, सृजन करने और जीवनयापन के तरीकों को आकार देती है। यही संदेश चंबा के भूरी सिंह संग्रहालय में आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन हिमालयन लेगेसीज, एक्सप्लोरिंग हिस्ट्रीज, हेरिटेज प्रैक्टिसेज एंड कल्चरल फ्यूचर्स के एक सत्र में गूंजा।
भूरी सिंह संग्रहालय और नॉट ऑन मैप संस्था की ओर से जिला मुख्यालय चंबा स्थित भूरी सिंह संग्रहालय की 117वीं वर्षगांठ पर हिमालयन लेगेसीज राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान शोधकर्ताओं ने शोध प्रस्तुत किए। इस दौरान मुख्य वक्ता एवं डा. प्राचार्य वजीर राम सिंह राजकीय महाविद्यालय देहरी सचिन कुमार ने आजीविका को केवल जीविकोपार्जन का माध्यम न मानकर एक व्यापक सांस्कृतिक प्रणाली के रूप में देखा जाना चाहिए।
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लोग अपनी आजीविका के लिए जो कार्य करते हैं, वे धीरे-धीरे उनकी सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा बन जाते हैं। पारंपरिक समाजों में काम और जीवन एक-दूसरे से अलग नहीं थे, जो आज के वर्क-लाइफ बैलेंस की अवधारणा से बिल्कुल भिन्न है। डा. कुमार ने कहा कि अब तक संस्कृति को राष्ट्रीय लेखा-जोखा प्रणाली में एक स्वतंत्र आर्थिक क्षेत्र के रूप में मान्यता नहीं मिली है, जिसके कारण नीतिगत योजना और निर्णय के लिए आवश्यक आंकड़ों की गंभीर कमी बनी हुई है।
इस कमी के चलते हिमाचल प्रदेश जैसे राज्य, जो कागजों पर समृद्ध दिखते हैं, स्थानीय स्तर पर असमानताओं का सामना कर रहे हैं। उन्होंने हिमाचल की पारंपरिक कला और शिल्प को आजीविका से जोड़ने में आने वाली प्रमुख चुनौतियों पर प्रकाश डाला। इनमें पारंपरिक ज्ञान का लोप, उत्पादन और विपणन श्रृंखला (वैल्यू चेन) का टूटना, विभागों के बीच समन्वय की कमी तथा पर्यटन और विकास के नाम पर सांस्कृतिक विरासत की गलत व्याख्या शामिल है।
डा. कुमार ने संस्कृति को उद्योग का दर्जा देने, एक व्यापक सांस्कृतिक डाटाबेस तैयार करने और विद्यालयों से लेकर प्रशासनिक संस्थानों तक सांस्कृतिक साक्षरता बढ़ाने की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने आधुनिक तकनीकों को पारंपरिक सौंदर्यशास्त्र और डिजाइन के साथ जोड़कर एक ऐसे सांस्कृतिक भविष्य की कल्पना करने का आह्वान किया, जो पहचान और गरिमा दोनों को बनाए रखे।
सम्मेलन का पहला सत्र टेंपल्स, आइकन्स एंड सेक्रेड लैंडस्केप्स हिमाचल राज्य संग्रहालय शिमला के क्यूरेटर डा. हरि चौहान की अध्यक्षता में आयोजित हुआ। दूसरा सत्र रिचुअल्स, फेस्टिवल्स एंड लिविंग ट्रेडिशन्स की अध्यक्षता प्राचार्य राजकीय महाविद्यालय सलूणी डा. मोहिंदर सलारिया ने की, जबकि तीसरे सत्र नेचर, मिथ एंड इमैजिनेशन की अध्यक्षता डा. विद्या सागर शर्मा ने की।
सम्मेलन में शोध पत्र प्रस्तुत करने वाले विद्वानों में हरीश्त शर्मा, सुमेधा पांडी, लक्ष्य जागलान, प्रीति बिष्ट, जयेंद्र सिंह कंवर, पल्लवी मिन्हास, युक्ति भारद्वाज, मजिंदर कौर, सचिन कुमार और दिनेश कुमार अत्री शामिल रहे।
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