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होम Khabar Himachal Seशिमला ! देवेंद्र धर के काव्य संग्रह "सुबकते पन्नों पर बहस" का लोकार्पण !
  • खबर हिमाचल से ,Video

शिमला ! देवेंद्र धर के काव्य संग्रह "सुबकते पन्नों पर बहस" का लोकार्पण !

द्वारा
विशाल सूद -
शिमला ( शिमला ) - July 3, 2023 @ 06:17 pm
0

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शिमला , 03 जुलाई [ विशाल सूद ] ! कल दिनांक 2 जुलाई 2023 रविवार को रोटरी क्लब हाल में कवि देवेंद्र धर के काव्य संग्रह " सुबकते पन्नों पर बहस" का लोकार्पण किया गया। कार्यक्रम में कवि -आलोचक डॉ. सत्यनारायण 'स्नेही', कवि दिनेश शर्मा,कवि सीताराम शर्मा 'सिद्धार्थ',उपन्यासकार गंगाराम राजी, दीप्ति सारस्वत, रौशन जसवाल, सुरेश शर्मा,श्याम शर्मा,नरेश देयोग, कल्पना गांगटा,उमा ' युवा कवयित्री साइस्टा वर्मा,डाक्टर सुरेंद्र शर्मा,स्नेह नेगी ,आर एल डोगरा,श्री सुरेश, रंगकर्मी जवाहर कौल चिंतक अरूण शर्मा।विद्वान डॉ मस्त राम शर्मा, सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के पूर्व निदेशक बी. डी. शर्मा के अतिरिक्त वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश आर्य भी उपस्थित थे। "सुबकते पन्नों पर बहस" काव्य-संग्रह का विमोचन अवसर साहित्यिक घुटन भरे शिमला शहर के लिए बहुत से मायनों में उपलब्धियों भरा रहा। वस्तुतः आल इंडिया प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के सेक्रेटरी जनरल डॉ. सुखदेव सिंह सिरसा और पंजाब प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के प्रेसिडेंट और पंजाब के शिरोमणि कवि डॉ. सुरजीत जज और सेक्रेटरी डॉ. कुलदीप सिंह "दीप" की और ऋषि महेशयोगी वि.विद्यालय, करोंदी, जबलपुर के हिंदी विभागध्यक्ष डॉ. अविचल गौतम की उपस्थिति ने हिमाचल की राजधानी शिमला का साहित्यिक मौसम ख़ुशगवार बना दिया। विपाशा के पूर्व सम्पादक डॉ. तुलसी रमण ने मंच संचालन करते हुए हिमाचल के प्रतिष्ठित कवि देवेंद्र धर के रचना-कर्म पर प्रकाश डाला।डॉ. अविचल गौतम ने कवि देवेंद्र धर की कविताओं की चर्चा करते हुए उन्हें केदार नाथ सिंह की परम्परा का कवि बताया। उन्होंने कहा यह आज हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण स्थान है जब हम सुबकते पन्नों पर बहस काव्य संग्रह पर कवि देवेंद्र धर की कविताओं पर चर्चा करने के लिए यहां पर इकट्ठा हुए हैं। वस्तुतः कविता करना एक जिम्मेदारी है, एक जिम्मेदारी है अपने समाज अपने देश और अपने परिवेश के प्रति जहां हम पले बढ़े और इस योग्य हुए की कविता जैसी सार्थक और गंभीर विधा में कुछ सृजन करने को उद्यत हुए। कवि की कविताओं से गुजरते हुए ऐसा बार-बार महसूस हुआ जैसे एक निपट वर्तमान कविताओं में लगातार संश्लिष्ट रूप से झांक रहा है। इतिहास के पन्नों में दर्ज हकीकत हैं में हम सबको एक रास्ता दिखाती है। वही वर्तमान इस कदर अपनी विसंगतियों को भी दर्शाता है कि जब सत्ता में बैठे हुए लोग पूरे इतिहास की पुनर व्याख्या करने में लगे हुए है, इतिहास के कुछ पन्ने फाड़ दिए गए हैं। ऐसे में कवि बेचैनी में ही सही कुछ दर्ज करना चाहता है, वह फटे निकाले गए सुबकते पन्नों पर बहस करना चाहता है, जो इतिहास के झरोखों से झांक रहे हैं, जिन्हें राजनीति छिपाना चाहती है, कवि कहता है इतिहास गलत ढूंढने से नहीं गलत का विरोध करने से है, जितना मर्जी छुपा लो, कोई पन्ना फाड़ कर रख दो पूरा इतिहास, नया इतिहास लिख दो, पर अगली पीढ़ियां फटे पन्नों से पूछ लेंगे वह सब संदर्भ जो फाड़ कर रखे हैं। कवि अपनी सृजन प्रक्रिया में कई बार अपने पूर्ववर्ती कवियों के प्रतिमाओं को भी अपनाता है और उसे एक नया रूप देता है लुकमान अली कविता केदारनाथ सिंह की जुम्मन मियां कविता का पुनर पाठ से सी प्रतीत होती है। जिसमें केदारनाथ सिंह स्वयं से पूछते हैं तुम्हें याद है जुम्मन मियां, सुरमा बेचने वाले जुम्मन मियां, बाजार से सबसे बाद में वापस जाते जुम्मन मियां। कवि के यहां लुकमान अली मशहूर हकीम है जो हर बीमारी की दवा रखते हैं किंतु अपने अवसान में लुकमान अली अब सिर्फ नाडी देखता है, मर्ज नहीं। वस्तुतः यह एक ऐसी त्रासदी है, दुनिया के झूठे पड़ जाने की त्रासदी है, जो लुकमान अली के माध्यम से कवि ने गढ़ी है। कविता वस्तुतः एक और अपने फॉर्म यानी संरचना और दूसरी ओर कंटेंट यानी वस्तु से जुड़ी है। यही वस्तु कवि की संवेदना के अनुरूप काव्य का ढांचा निर्मित करती जाती है। संबंधों के इस संकट में सूखे पत्तों की तरह शब्द पेड़ों से जमीन पर बिखर गए हैं बस इतनी ही नैसर्गिक रूप से कवि ने कविता को रचा है। यही बेचैनी बहुत ही गहराई के साथ शब्दों के रूप में झरने लग रही है। कवि को क्षोभ भी है, वह लिखता है मैं वह गीत नहीं लिखूंगा जिन गीतों में जुबान नहीं होती मैं पैने दातों वाले गीत लिखूंगा। वह गीत नहीं लिखूंगा जो जमीन से पैदा नहीं होते। वास्तव में यह एक लेखक की प्रतिबद्धता तो है ही एक सचेत नागरिक की प्रतिबद्धता भी है। कवि की निगाह न सिर्फ देश की भौगोलिक सीमा तक है अपितु विश्व संदर्भों में भी कवि अपनी काव्य संवेदना के सरोकार खोजता है। फिलिस्तीन का खून मित्र खुदादा जो अंगोला के जंगलों में धड़क रहा है जो क्यूबा के संगीत की धुनों से बना हुआ था और जिसे कभी होचिन मिन ने सुना था। शायद वह धुनें मेरी समझ से परे रही हो, मैं उसके संगीत में बह जरूर रहा हूं। कवि यहां पर एक और उस पीड़ा को भी अंतर्मन से व्यक्त करना चाहता है जो समय की विसंगतियों ने रचा है। केदारनाथ सिंह की एक कविता है उठो कि बुनने का समय हो गया है उठो की बुनने का समय हो गया है कवि देवेंद्र घर के यहां भी ऐसा ही एक आवाहन दिखाई देता है जो अपने गहरे संदर्भ में कुछ नया रचने नया सृजित करने वह आमंत्रित करता है, उठो की हवाओं के रुख बदलने से कुछ नहीं होगा, बदलनी पड़ेगी हवाएं ही यह भी देखना होगा कि कहां तक खराब हो गई है यह हवाएं। यहां कवि उस व्यवस्था के खराब पड़ जाने की सीमा भी आंकना चाहता है क्योंकि वह चाहता है कि उन हवाओं को फिर से दुरुस्त किया जा सके। कवि की कविता दंगाई शहर- 'तमाम तरह के सच परखने वाले यंत्र उतारे हैं मेरे मस्तिष्क पर चलते हथौड़े ने, मेरे सत्य की धार और पैनी की है। वस्तुतः कवि का संघर्ष ही उसकी रचना शीलता का मेयार बन जाती है। मित्र को याद कर करते हुए अपनी संवेदना कवि मित्र स्वर्गीय अजीत कुमार को न सिर्फ मैत्री के लिए याद किया बल्कि -मुझे उन लोगों से कोई संवाद नहीं करना, कोई सरोकार भी नहीं, जो तलाशते अंधेरे में सूरज, तुम चले गए, मैं अकेला नहीं, तुम हारे नहीं, तुम अजीत हो, हो तुम अभी मित्र मित्र की अभौतिक उपस्थिति कितनी गहरी और व्यापक बन गई है यह कवि के शब्दों में हमें दिखाई देता है। प्रजातंत्र के अंधेरे में कविता पढ़ते हुए धूमिल की याद पैसा आती है। हम सब जानते हैं कि धूमिल की कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है। धूमिल जहां एक और गालियों का सौंदर्यशास्त्र है वहीं दूसरी ओर नग्न यथार्थ के चित्र दिखाई देते हैं। कवि देवेंद्र धर की कविताएं धूमिल की उस परंपरा का भी अवगाहन करती है जिसमें कवि बिल्कुल नग्न यथार्थ को बयां करता है और कहता है यह कोई राजनैतिक संवाद नहीं रंगे सियार की चाल समझने का एक ईमानदार प्रयास है। एक जनतंत्र के सबसे सतही अंश को उस दीवार से भगाने का जिसने 75 वर्षों कब्रिस्तान में दलबल सहित कब्जा जमा रखा है। इसी कविता में कवि चुनाव के संदर्भ में बड़ी बेबाकी से कहता है हद तो अभी होने को है इस चुनाव में भाव इतने मजबूत होंगे कि अबकी उगी हुई खेती अगले कई चुनावों तक चलती रहेगी यह न सिर्फ राजनीति का नंगा सच है बल्कि झूठ पड़ती हुई जनतंत्र की दुहाई भी है। कवि के यहां विसंगति का भाव बहुत गहरा है जब वह थाली के रंग में देखता है कि इस थाली और रोटी का अजूबा यह रहा है कि, भूख सबको लगती है, लेकिन रोटी सब को नसीब नहीं होती। यह कवि उस गहरे यथार्थ को बयां करता है बल्कि उस सामाजिक विसंगति को बहुत गहरे भाव बोध के साथ व्यक्त करता है। कवि व्यंग भी करता है और कहता है वैसे मेरे चेहरे पर धूप चमकती थी और उसके चेहरे पर घने बादल यह परिचय एक अनोखा परिचय है। समाज दुनिया के एक शर्मनाक दिशा की तरफ कवि इशारा करते हुए कहता है बंदर अब शहर छोड़ जंगल मे मंडराने लगे हैं। खुद को आदमी का पूर्वज कहलाने से थोड़ा शर्माने लगे हैं। आगे ईसी कविता में कवि कहता है क्योंकि भगवान राम की कचहरी में उनकी एक अपील सदियों से लंबित है भगवान की सेना कब बाहर निकले इन्हें मालूम ही नहीं कब हो गई जनगणना कब इनका नाम राष्ट्रीय नागरिक पंजी से निकाला गया जबकि पुर्वज सूची में है...एक गहरा व्यंग्य सृजत करता है। कवि के यहां माँ और पिता पर भी मार्मिक कविताएं वर्तमान पारिवारिक और सामाजिक विसंगतियों को दर्शाती है और पिता स्वप्न के यथार्थ बनने की अनुगूंज बन जाते हैं वहीं मां स्वयं रास्ता। भाषा के सवाल पर कवि बहुत संवेदनशील दिखाई देता है, जब शब्दों के यथार्थ और संभावनाओं का चित्रण करता है। शब्द केवल बड़े शब्दकोशो में ही नहीं मिलते, जनता में भी पलते हैं, यहां कवि जनता की भागीदारी को सुनिश्चित करता है..और जनता का पक्षधर होकर सामने आता है। इस अवसर पर प्रगतिशील लेखक संघ के सेक्रेटरी जनरल डॉ. सिरसा ने कहा कि भाषा के प्रति अविश्वास के इस दौर में कवि देवेंद्र धर की कवितायेँ समाज में पसरे मौन को तोड़ती हुई कविताएं हैं। पंजाब प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष डॉ. सुरजीत जज ने सुबकते पन्नों पर बहस की कविताओं कोआक्रोश से उत्पन्न कवितायें कहा। चर्चा में डॉ. कुलदीप सिंह दीप , कवि सतीश धर ने भी भाग लिया।

शिमला , 03 जुलाई [ विशाल सूद ] ! कल दिनांक 2 जुलाई 2023 रविवार को रोटरी क्लब हाल में कवि देवेंद्र धर के काव्य संग्रह " सुबकते पन्नों पर बहस" का लोकार्पण किया गया।

कार्यक्रम में कवि -आलोचक डॉ. सत्यनारायण 'स्नेही', कवि दिनेश शर्मा,कवि सीताराम शर्मा 'सिद्धार्थ',उपन्यासकार गंगाराम राजी, दीप्ति सारस्वत, रौशन जसवाल, सुरेश शर्मा,श्याम शर्मा,नरेश देयोग, कल्पना गांगटा,उमा ' युवा कवयित्री साइस्टा वर्मा,डाक्टर सुरेंद्र शर्मा,स्नेह नेगी ,आर एल डोगरा,श्री सुरेश, रंगकर्मी जवाहर कौल चिंतक अरूण शर्मा।विद्वान डॉ मस्त राम शर्मा, सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के पूर्व निदेशक बी. डी. शर्मा के अतिरिक्त वरिष्ठ पत्रकार हृदयेश आर्य भी उपस्थित थे।

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उन्होंने कहा यह आज हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण स्थान है जब हम सुबकते पन्नों पर बहस काव्य संग्रह पर कवि देवेंद्र धर की कविताओं पर चर्चा करने के लिए यहां पर इकट्ठा हुए हैं। वस्तुतः कविता करना एक जिम्मेदारी है, एक जिम्मेदारी है अपने समाज अपने देश और अपने परिवेश के प्रति जहां हम पले बढ़े और इस योग्य हुए की कविता जैसी सार्थक और गंभीर विधा में कुछ सृजन करने को उद्यत हुए। कवि की कविताओं से गुजरते हुए ऐसा बार-बार महसूस हुआ जैसे एक निपट वर्तमान कविताओं में लगातार संश्लिष्ट रूप से झांक रहा है।

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कविता वस्तुतः एक और अपने फॉर्म यानी संरचना और दूसरी ओर कंटेंट यानी वस्तु से जुड़ी है। यही वस्तु कवि की संवेदना के अनुरूप काव्य का ढांचा निर्मित करती जाती है।

संबंधों के इस संकट में सूखे पत्तों की तरह शब्द पेड़ों से जमीन पर बिखर गए हैं बस इतनी ही नैसर्गिक रूप से कवि ने कविता को रचा है। यही बेचैनी बहुत ही गहराई के साथ शब्दों के रूप में झरने लग रही है।

कवि को क्षोभ भी है, वह लिखता है मैं वह गीत नहीं लिखूंगा जिन गीतों में जुबान नहीं होती मैं पैने दातों वाले गीत लिखूंगा। वह गीत नहीं लिखूंगा जो जमीन से पैदा नहीं होते।

वास्तव में यह एक लेखक की प्रतिबद्धता तो है ही एक सचेत नागरिक की प्रतिबद्धता भी है। कवि की निगाह न सिर्फ देश की भौगोलिक सीमा तक है अपितु विश्व संदर्भों में भी कवि अपनी काव्य संवेदना के सरोकार खोजता है। फिलिस्तीन का खून मित्र खुदादा जो अंगोला के जंगलों में धड़क रहा है जो क्यूबा के संगीत की धुनों से बना हुआ था और जिसे कभी होचिन मिन ने सुना था। शायद वह धुनें मेरी समझ से परे रही हो, मैं उसके संगीत में बह जरूर रहा हूं।

कवि यहां पर एक और उस पीड़ा को भी अंतर्मन से व्यक्त करना चाहता है जो समय की विसंगतियों ने रचा है। केदारनाथ सिंह की एक कविता है उठो कि बुनने का समय हो गया है उठो की बुनने का समय हो गया है कवि देवेंद्र घर के यहां भी ऐसा ही एक आवाहन दिखाई देता है जो अपने गहरे संदर्भ में कुछ नया रचने नया सृजित करने वह आमंत्रित करता है, उठो की हवाओं के रुख बदलने से कुछ नहीं होगा, बदलनी पड़ेगी हवाएं ही यह भी देखना होगा कि कहां तक खराब हो गई है यह हवाएं। यहां कवि उस व्यवस्था के खराब पड़ जाने की सीमा भी आंकना चाहता है क्योंकि वह चाहता है कि उन हवाओं को फिर से दुरुस्त किया जा सके।

कवि की कविता दंगाई शहर- 'तमाम तरह के सच परखने वाले यंत्र उतारे हैं मेरे मस्तिष्क पर चलते हथौड़े ने, मेरे सत्य की धार और पैनी की है।

वस्तुतः कवि का संघर्ष ही उसकी रचना शीलता का मेयार बन जाती है। मित्र को याद कर करते हुए अपनी संवेदना कवि मित्र स्वर्गीय अजीत कुमार को न सिर्फ मैत्री के लिए याद किया बल्कि -मुझे उन लोगों से कोई संवाद नहीं करना, कोई सरोकार भी नहीं, जो तलाशते अंधेरे में सूरज, तुम चले गए, मैं अकेला नहीं, तुम हारे नहीं, तुम अजीत हो, हो तुम अभी मित्र मित्र की अभौतिक उपस्थिति कितनी गहरी और व्यापक बन गई है यह कवि के शब्दों में हमें दिखाई देता है।

प्रजातंत्र के अंधेरे में कविता पढ़ते हुए धूमिल की याद पैसा आती है। हम सब जानते हैं कि धूमिल की कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है।

धूमिल जहां एक और गालियों का सौंदर्यशास्त्र है वहीं दूसरी ओर नग्न यथार्थ के चित्र दिखाई देते हैं। कवि देवेंद्र धर की कविताएं धूमिल की उस परंपरा का भी अवगाहन करती है जिसमें कवि बिल्कुल नग्न यथार्थ को बयां करता है और कहता है यह कोई राजनैतिक संवाद नहीं रंगे सियार की चाल समझने का एक ईमानदार प्रयास है। एक जनतंत्र के सबसे सतही अंश को उस दीवार से भगाने का जिसने 75 वर्षों कब्रिस्तान में दलबल सहित कब्जा जमा रखा है।

इसी कविता में कवि चुनाव के संदर्भ में बड़ी बेबाकी से कहता है हद तो अभी होने को है इस चुनाव में भाव इतने मजबूत होंगे कि अबकी उगी हुई खेती अगले कई चुनावों तक चलती रहेगी यह न सिर्फ राजनीति का नंगा सच है बल्कि झूठ पड़ती हुई जनतंत्र की दुहाई भी है। कवि के यहां विसंगति का भाव बहुत गहरा है जब वह थाली के रंग में देखता है कि इस थाली और रोटी का अजूबा यह रहा है कि, भूख सबको लगती है, लेकिन रोटी सब को नसीब नहीं होती।

यह कवि उस गहरे यथार्थ को बयां करता है बल्कि उस सामाजिक विसंगति को बहुत गहरे भाव बोध के साथ व्यक्त करता है। कवि व्यंग भी करता है और कहता है वैसे मेरे चेहरे पर धूप चमकती थी और उसके चेहरे पर घने बादल यह परिचय एक अनोखा परिचय है। समाज दुनिया के एक शर्मनाक दिशा की तरफ कवि इशारा करते हुए कहता है बंदर अब शहर छोड़ जंगल मे मंडराने लगे हैं। खुद को आदमी का पूर्वज कहलाने से थोड़ा शर्माने लगे हैं। आगे ईसी कविता में कवि कहता है क्योंकि भगवान राम की कचहरी में उनकी एक अपील सदियों से लंबित है भगवान की सेना कब बाहर निकले इन्हें मालूम ही नहीं कब हो गई जनगणना कब इनका नाम राष्ट्रीय नागरिक पंजी से निकाला गया जबकि पुर्वज सूची में है...एक गहरा व्यंग्य सृजत करता है। कवि के यहां माँ और पिता पर भी मार्मिक कविताएं वर्तमान पारिवारिक और सामाजिक विसंगतियों को दर्शाती है और पिता स्वप्न के यथार्थ बनने की अनुगूंज बन जाते हैं वहीं मां स्वयं रास्ता।

भाषा के सवाल पर कवि बहुत संवेदनशील दिखाई देता है, जब शब्दों के यथार्थ और संभावनाओं का चित्रण करता है। शब्द केवल बड़े शब्दकोशो में ही नहीं मिलते, जनता में भी पलते हैं, यहां कवि जनता की भागीदारी को सुनिश्चित करता है..और जनता का पक्षधर होकर सामने आता है।

इस अवसर पर प्रगतिशील लेखक संघ के सेक्रेटरी जनरल डॉ. सिरसा ने कहा कि भाषा के प्रति अविश्वास के इस दौर में कवि देवेंद्र धर की कवितायेँ समाज में पसरे मौन को तोड़ती हुई कविताएं हैं। पंजाब प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष डॉ. सुरजीत जज ने सुबकते पन्नों पर बहस की कविताओं कोआक्रोश से उत्पन्न कवितायें कहा। चर्चा में डॉ. कुलदीप सिंह दीप , कवि सतीश धर ने भी भाग लिया।

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