ग्लोबल वॉर्मिंग से बिगड़ रहा मौसमी संतुलन, बेतरतीब निर्माण बना खतरे की जड़, कच्ची मिट्टी, गहरे नाले और तबाही की दस्तक, प्राकृतिक बहाव पर कब्जा? आफत की दावत, सीवरेज प्लान फेल, नुकसान तय, प्रकृति से टकराव ही तबाही की जड़, विकास की योजना विज्ञान से तय हो नीति से नहीं
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शिमला , 04 जुलाई [ विशाल सूद ] ! हिमाचल प्रदेश में इन दिनों प्राकृतिक आपदाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। हर ओर भारी बारिश, सड़कें बंद, गांव कटे और लोगों में डर का माहौल है। खासकर बादल फटने की घटनाएं चिंता बढ़ा रही हैं। इसके पीछे का कारण जानने के लिए बात की हिमाचल प्रदेश पर्यावरण विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के प्रिंसिपल साइंटिफिक ऑफीसर डॉ. सुरेश अत्री से। हिमाचल प्रदेश में मॉनसून की एंट्री के बाद मात्र दो हफ्तों में ही हालात बेकाबू हो गए हैं। सवाल ये है कि आखिर इतनी भीषण तबाही क्यों हो रही है? डॉ. सुरेश अत्री बताते हैं कि जब कुछ ही मिनटों में बहुत सीमित इलाके में 100 मिमी से अधिक बारिश होती है, तो उसे क्लाउडबर्स्ट कहते हैं। पहाड़ी इलाकों की टोपोग्राफी इसे और गंभीर बना देती है। यहां की ढलानदार और संकरी घाटियां बारिश को सम्हाल नहीं पातीं। इसके अलावा, क्लाइमेट चेंज ने मौसमी पैटर्न ही बदल दिए हैं। गर्मी बढ़ने से हवा में अधिक नमी आ रही है, जो अचानक तेज बारिश में तब्दील हो रही है। साथ ही, पहाड़ी इलाकों में 'ओरोग्राफिक इफेक्ट' ज़्यादा सक्रिय रहता है— यानि गर्म हवा तेजी से ऊपर उठती है और अचानक तेज बारिश का रूप ले लेती है। चंबा, कुल्लू और किन्नौर जैसे ज़िलों में इसका असर सबसे ज्यादा देखा जा रहा है। तो फिर सवाल उठता है कि मैदानी इलाकों में ये घटनाएं क्यों नहीं होतीं? डॉ. अत्री के अनुसार, मैदानी क्षेत्रों में हवा की गति अपेक्षाकृत स्थिर रहती है और वहां ऊंचाई का फर्क नहीं होता, जिससे ओरोग्राफिक इफेक्ट नहीं बनता। ऐसे इलाकों में नमी धीरे-धीरे फैलती है और बारिश व्यापक क्षेत्र में होती है। इसीलिए, वहां क्लाउडबर्स्ट जैसी तीव्र और केंद्रित घटनाएं नहीं देखी जातीं। अब सवाल ये है कि क्या ज्यादा पौधारोपण भी समस्या बन सकता है? डॉ. अत्री कहते हैं कि हाल के वर्षों में हिमाचल में कई स्थानों पर बिना पर्यावरणीय मूल्यांकन के पौधारोपण हुआ है। कई बार स्थानीय वनस्पतियों की जगह बाहरी प्रजातियों को लगाया गया है। इससे मिट्टी की नमी और तापमान का संतुलन बिगड़ता है। घास के मैदान गायब हो गए हैं, जिससे जल का प्राकृतिक बहाव रुक गया है। इससे जहां पानी नहीं रुकना चाहिए, वहां रुक रहा है और जहां बहना चाहिए, वहां तबाही ला रहा है। डॉ. अत्री ने बताया कि इस बार पश्चिमी विक्षोभ बार-बार एक्टिव रहे हैं और हिमालयी बेल्ट में लगातार नमी बनाए रखी है। साथ ही, एल नीनो और ला नीना जैसी वैश्विक घटनाएं भी स्थानीय सिस्टम को डिस्टर्ब कर रही हैं। अगर हम समय रहते नहीं चेते तो भविष्य में ऐसी घटनाएं और भी विकराल रूप ले सकती हैं। उन्होंने साफ कहा कि अब मकान बनाने से पहले भूगर्भीय सर्वे जरूरी हो, नालों पर कंस्ट्रक्शन पर सख्ती हो और हर निर्माण कार्य के साथ पर्यावरणीय मूल्यांकन अनिवार्य किया जाए। वरना, यह तबाही हर साल की कहानी बन जाएगी। हिमाचल की पर्वत श्रृंखलाएं अब चेतावनी दे रही हैं, प्रकृति के साथ किया गया हर खिलवाड़ अब भारी पड़ने लगा है। विज्ञान का संदेश साफ है कि अगर विकास चाहिए, तो वो पर्यावरण के अनुकूल हो। नहीं तो पहाड़ हर साल यूं ही कराहते रहेंगे। वक्त है, समझदारी दिखाने का।
शिमला , 04 जुलाई [ विशाल सूद ] ! हिमाचल प्रदेश में इन दिनों प्राकृतिक आपदाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। हर ओर भारी बारिश, सड़कें बंद, गांव कटे और लोगों में डर का माहौल है। खासकर बादल फटने की घटनाएं चिंता बढ़ा रही हैं। इसके पीछे का कारण जानने के लिए बात की हिमाचल प्रदेश पर्यावरण विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के प्रिंसिपल साइंटिफिक ऑफीसर डॉ. सुरेश अत्री से।
हिमाचल प्रदेश में मॉनसून की एंट्री के बाद मात्र दो हफ्तों में ही हालात बेकाबू हो गए हैं। सवाल ये है कि आखिर इतनी भीषण तबाही क्यों हो रही है? डॉ. सुरेश अत्री बताते हैं कि जब कुछ ही मिनटों में बहुत सीमित इलाके में 100 मिमी से अधिक बारिश होती है, तो उसे क्लाउडबर्स्ट कहते हैं। पहाड़ी इलाकों की टोपोग्राफी इसे और गंभीर बना देती है।
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यहां की ढलानदार और संकरी घाटियां बारिश को सम्हाल नहीं पातीं। इसके अलावा, क्लाइमेट चेंज ने मौसमी पैटर्न ही बदल दिए हैं। गर्मी बढ़ने से हवा में अधिक नमी आ रही है, जो अचानक तेज बारिश में तब्दील हो रही है। साथ ही, पहाड़ी इलाकों में 'ओरोग्राफिक इफेक्ट' ज़्यादा सक्रिय रहता है— यानि गर्म हवा तेजी से ऊपर उठती है और अचानक तेज बारिश का रूप ले लेती है। चंबा, कुल्लू और किन्नौर जैसे ज़िलों में इसका असर सबसे ज्यादा देखा जा रहा है। तो फिर सवाल उठता है कि मैदानी इलाकों में ये घटनाएं क्यों नहीं होतीं?
डॉ. अत्री के अनुसार, मैदानी क्षेत्रों में हवा की गति अपेक्षाकृत स्थिर रहती है और वहां ऊंचाई का फर्क नहीं होता, जिससे ओरोग्राफिक इफेक्ट नहीं बनता। ऐसे इलाकों में नमी धीरे-धीरे फैलती है और बारिश व्यापक क्षेत्र में होती है। इसीलिए, वहां क्लाउडबर्स्ट जैसी तीव्र और केंद्रित घटनाएं नहीं देखी जातीं।
अब सवाल ये है कि क्या ज्यादा पौधारोपण भी समस्या बन सकता है? डॉ. अत्री कहते हैं कि हाल के वर्षों में हिमाचल में कई स्थानों पर बिना पर्यावरणीय मूल्यांकन के पौधारोपण हुआ है। कई बार स्थानीय वनस्पतियों की जगह बाहरी प्रजातियों को लगाया गया है। इससे मिट्टी की नमी और तापमान का संतुलन बिगड़ता है। घास के मैदान गायब हो गए हैं, जिससे जल का प्राकृतिक बहाव रुक गया है। इससे जहां पानी नहीं रुकना चाहिए, वहां रुक रहा है और जहां बहना चाहिए, वहां तबाही ला रहा है।
डॉ. अत्री ने बताया कि इस बार पश्चिमी विक्षोभ बार-बार एक्टिव रहे हैं और हिमालयी बेल्ट में लगातार नमी बनाए रखी है। साथ ही, एल नीनो और ला नीना जैसी वैश्विक घटनाएं भी स्थानीय सिस्टम को डिस्टर्ब कर रही हैं। अगर हम समय रहते नहीं चेते तो भविष्य में ऐसी घटनाएं और भी विकराल रूप ले सकती हैं। उन्होंने साफ कहा कि अब मकान बनाने से पहले भूगर्भीय सर्वे जरूरी हो, नालों पर कंस्ट्रक्शन पर सख्ती हो और हर निर्माण कार्य के साथ पर्यावरणीय मूल्यांकन अनिवार्य किया जाए। वरना, यह तबाही हर साल की कहानी बन जाएगी।
हिमाचल की पर्वत श्रृंखलाएं अब चेतावनी दे रही हैं, प्रकृति के साथ किया गया हर खिलवाड़ अब भारी पड़ने लगा है। विज्ञान का संदेश साफ है कि अगर विकास चाहिए, तो वो पर्यावरण के अनुकूल हो। नहीं तो पहाड़ हर साल यूं ही कराहते रहेंगे। वक्त है, समझदारी दिखाने का।
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